कठौतिया-दुआरी रेल सेक्शन को लेकर आक्रोश, विस्थापन की आग में सुलगता शिवपुर प्रोजेक्ट

रांची दर्पण डेस्क। झारखंड के कोयला खनन क्षेत्र में एक बार फिर कठौतिया-दुआरी रेल सेक्शन और स्थानीय समुदाय के बीच टकराव की कहानी सामने आ रही है। सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड (सीसीएल) के महत्वाकांक्षी शिवपुर-कठौतिया रेल प्रोजेक्ट के कठौतिया-दुआरी सेक्शन पर ग्रामीणों का विरोध थमने का नाम नहीं ले रहा।

इस रेल लाइन के निर्माण से सात गांवों के सैकड़ों परिवार विस्थापित होने वाले हैं, जिसके चलते स्थानीय लोग सड़कों पर उतर आए हैं। निर्माण कार्य रुक-रुक कर चल रहा है, और परियोजना की समयसीमा पहले ही लांघ चुकी है। क्या यह प्रोजेक्ट कोयला उत्पादन को बढ़ावा देगा या ग्रामीणों की जिंदगी को उजाड़ देगा? आइए, इस मुद्दे की गहराई में उतरते हैं।

शिवपुर-कठौतिया रेल प्रोजेक्ट की नींव 2018 में रखी गई थी, जब भारत सरकार ने इसकी मंजूरी दी। कुल 49.085 किलोमीटर लंबी यह रेल लाइन कोयला परिवहन को सुगम बनाने के लिए बनाई जा रही है, जिस पर लगभग 1800 करोड़ रुपये का खर्च अनुमानित है। प्रोजेक्ट में 13 बड़े पुलों का निर्माण शामिल है और कोयला मंत्रालय ने इन सभी ब्रिजों के लिए सख्त समयसीमा तय की है। मूल योजना के अनुसार यह परियोजना पांच साल में पूरी होनी थी, यानी इसी साल सितंबर तक। लेकिन ग्रामीणों के विरोध ने सब कुछ ठप कर दिया है।

विरोध का केंद्र बिंदु है कठौतिया-दुआरी रेल सेक्शन। यहां सात गांव के नाम अभी गोपनीय रखे गए हैं, इस प्रोजेक्ट के अंतिम चरण में आ रहे हैं। इन गांवों के निवासी दावा करते हैं कि रेल लाइन उनके घरों, खेतों और आजीविका को निगल जाएगी।

एक स्थानीय किसान ने रांची दर्पण से बातचीत में कहा कि हमारी जमीन हमारा जीवन है। बिना उचित पुनर्वास के हम एक इंच भी नहीं हटेंगे। विरोध इतना तीव्र है कि निर्माण कार्य पूरी तरह प्रभावित हो गया है। सीसीएल के अधिकारियों का कहना है कि करीब 2.29 किलोमीटर का स्ट्रेच अभी भी अधर में लटका है, जबकि कुल 20 एकड़ जमीन अधिग्रहित की जा चुकी है।

कंपनी की ओर से ग्रामीणों को मनाने की कोशिशें जारी हैं। सीसीएल ने दावा किया है कि सात में से तीन गांवों के निवासियों से सहमति प्राप्त कर ली गई है, और उनका पुनर्वास प्रक्रिया में है। शेष चार गांवों के साथ बातचीत चल रही है।

रैयतों को 95 प्रतिशत मुआवजा भी वितरित कर दिया गया है। लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि मुआवजा पर्याप्त नहीं है, और पुनर्वास की गारंटी पर संदेह है। एक ग्रामीण नेता ने आरोप लगाया कि पिछले प्रोजेक्टों में भी वादे किए गए थे, लेकिन हकीकत में लोग दर-दर भटकते रहे।

हालांकि इस पूरे मामले पर भारत सरकार की नजर है। कोयला मंत्रालय ने हाल ही में सभी कोयला कंपनियों के रेल प्रोजेक्टों की समीक्षा की और विस्तृत रिपोर्ट मांगी। सीसीएल ने मंत्रालय को बताया कि मगध रेलवे साइडिंग के लिए 121 हेक्टेयर भूमि की जरूरत है, जिसमें वन भूमि भी शामिल है। फॉरेस्ट क्लियरेंस की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और स्टेज-1 की मंजूरी नवंबर तक मिलने की उम्मीद है।

इसी तरह आम्रपाली ओपेन कास्ट प्रोजेक्ट के रेलवे साइडिंग के लिए स्टेज-1 क्लियर हो चुका है, अब स्टेज-2 का इंतजार है। मंत्रालय ने विशेष रूप से पूछा है कि इन प्रोजेक्टों में कितनी वन भूमि और कितनी गैर-वन भूमि का उपयोग होगा, ताकि पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखा जा सके।

यह प्रोजेक्ट झारखंड सेंट्रल रेलवे लिमिटेड (जेसीआरएल) द्वारा संचालित है, जो सीसीएल, इरकॉन इंटरनेशनल और झारखंड सरकार का संयुक्त उद्यम है। कंपनी की स्थापना 10 साल पहले हुई थी और वर्तमान में सीसीएल के निदेशक (वित्त) पवन कुमार मिश्र इसके चेयरमैन हैं। जेसीआरएल का उद्देश्य कोयला खनन से जुड़े रेल प्रोजेक्टों को तेजी से पूरा करना है, लेकिन ग्रामीण विरोध जैसे मुद्दे इसे चुनौती दे रहे हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि यह टकराव झारखंड के विकास मॉडल पर सवाल उठाता है। एक ओर कोयला उत्पादन बढ़ाकर ऊर्जा सुरक्षा मजबूत करने की जरूरत है। वहीं दूसरी ओर स्थानीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा। यदि बातचीत से हल नहीं निकला तो प्रोजेक्ट और देरी का शिकार हो सकता है, जिससे आर्थिक नुकसान होगा।

सीसीएल के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हम ग्रामीणों की चिंताओं को समझते हैं और उन्हें बेहतर विकल्प देने को तैयार हैं। लेकिन विकास रुकना नहीं चाहिए। अब ग्रामीणों की आवाज सुनी जाएगी या प्रोजेक्ट की रफ्तार बढ़ेगी? आने वाले दिन बताएंगे।

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