
रांची दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय। छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 (CNT अधिनियम) भारत के झारखंड राज्य में आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया एक ऐतिहासिक कानून है।
यह अधिनियम ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में विशेष रूप से बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए मुंडा विद्रोह (1895-1900) के बाद, आदिवासियों की भूमि को गैर-आदिवासियों द्वारा हड़पने से बचाने के लिए लागू किया गया था।
11 नवंबर 1908 को लागू इस अधिनियम को 29 अक्टूबर 1908 को गवर्नर-जनरल की स्वीकृति प्राप्त हुई थी और यह भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल है, जो इसे न्यायिक समीक्षा से बाहर रखता है।
यह लेख सीएनटी अधिनियम के विभिन्न पहलुओं, इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रावधानों, प्रभाव, चुनौतियों और समकालीन प्रासंगिकता का विश्लेषण करता है।
दरअसल 19वीं शताब्दी में छोटा नागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में आदिवासी समुदायों, विशेषकर मुंडा, उरांव और अन्य जनजातियों, की भूमि को जमींदारों और बाहरी लोगों द्वारा बड़े पैमाने पर हड़प लिया जा रहा था।
ब्रिटिश शासन के तहत लागू जमींदारी प्रणाली और विलकिंसन नियम (1834-1882) ने आदिवासियों की सामुदायिक भूमि व्यवस्था को कमजोर किया। बेठ बेगारी (बंधुआ मजदूरी) और अत्यधिक लगान ने आदिवासियों को अपनी ही भूमि से वंचित कर दिया।
बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए विद्रोह ने ब्रिटिश प्रशासन को आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए कदम उठाने पर मजबूर किया। परिणामस्वरूप सीएनटी अधिनियम 1908 में लागू हुआ, जिसका मुख्य उद्देश्य आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित होने से रोकना और सामुदायिक स्वामित्व की रक्षा करना था।
सीएनटी अधिनियम में 19 अध्याय और 271 धाराएं हैं, जो विभिन्न पहलुओं को कवर करती हैं। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-
आदिवासी भूमि का संरक्षण (धारा 46 और 49): यह अधिनियम आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध लगाता है। धारा 46 और 49 के तहत, अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी) और कुछ मामलों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की भूमि की खरीद-बिक्री पर सख्त नियंत्रण है। यह सुनिश्चित करता है कि आदिवासी अपनी जमीन पर नियंत्रण बनाए रखें।
अधिभोग रैयत के अधिकार (धारा 21): धारा 21 अधिभोग रैयतों (किसानों) को अपनी भूमि के उपयोग के संबंध में अधिकार प्रदान करती है। यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि रैयत अपनी भूमि पर कब्जा बनाए रखें और उनकी सहमति के बिना भूमि का उपयोग बदला न जाए।
गैरकानूनी हस्तांतरण पर कब्जा बहाली (धारा 71A): धारा 71A, जो बिहार अनुसूचित क्षेत्र विनियमन, 1969 द्वारा जोड़ी गई, गैरकानूनी रूप से हस्तांतरित आदिवासी भूमि को अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को वापस करने की शक्ति प्रदान करती है। यह प्रावधान आदिवासियों के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच है।
सामुदायिक स्वामित्व और खूंटकट्टी प्रणाली: अधिनियम खूंटकट्टी (सामुदायिक काश्तकारी) प्रणाली को मान्यता देता है, जो आदिवासी समुदायों की सामूहिक भूमि व्यवस्था को संरक्षित करती है। यह प्रणाली ग्राम स्तर पर सामुदायिक स्वामित्व को बढ़ावा देती है।
लागू क्षेत्र: यह अधिनियम उत्तरी छोटा नागपुर, दक्षिणी छोटा नागपुर, पलामू संभागों, और कोल्हान क्षेत्र में लागू है। यह झारखंड नगरपालिका अधिनियम, 2002 के तहत आने वाली नगर पालिकाओं और अधिसूचित क्षेत्र समितियों पर भी लागू होता है।
बेठ बेगारी पर प्रतिबंध: अधिनियम ने बंधुआ मजदूरी (बेठ बेगारी) पर रोक लगाई और लगान की दरों को कम करने का प्रावधान किया, जिससे आदिवासियों का शोषण कम हुआ।
वन-उपज का प्रावधान: धारा 4 के तहत, वन-उपज जैसे लकड़ी, काठकोयला, महुआ और हरीतकी आदि को परिभाषित किया गया है, जो आदिवासियों के लिए आजीविका का महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
सीएनटी अधिनियम ने आदिवासी समुदायों के लिए कई सकारात्मक प्रभाव डाले-
भूमि संरक्षण: इसने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों द्वारा हड़पने से रोका और सामुदायिक स्वामित्व को मजबूत किया।
सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा: बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध और लगान में कमी ने आदिवासियों के आर्थिक शोषण को कम किया।
सांस्कृतिक संरक्षण: सामुदायिक भूमि व्यवस्था की रक्षा ने आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को बनाए रखने में मदद की।
हालांकि, अधिनियम के कार्यान्वयन में कई चुनौतियां भी सामने आईं है-
प्रशासनिक कमियां: कई मामलों में, गैरकानूनी भूमि हस्तांतरण को रोकने में प्रशासन विफल रहा।
उद्योग और विकास परियोजनाएं: औद्योगिक और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए आदिवासी भूमि का अधिग्रहण एक विवादास्पद मुद्दा रहा है, क्योंकि यह अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है।
संशोधन का विवाद: समय-समय पर अधिनियम में संशोधन के प्रयासों ने आदिवासी समुदायों में आक्रोश पैदा किया है, क्योंकि वे इसे अपने अधिकारों पर हमला मानते हैं।
आज के संदर्भ में, सीएनटी अधिनियम की प्रासंगिकता और चुनौतियां निम्नलिखित हैं-
भूमि अधिग्रहण और औद्योगीकरण: झारखंड में खनन, उद्योग, और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए आदिवासी भूमि का अधिग्रहण एक प्रमुख मुद्दा है। सीएनटी अधिनियम के प्रावधानों के बावजूद कई मामलों में भूमि गैर-कृषि उपयोग के लिए हस्तांतरित की गई है, जिससे आदिवासी समुदायों में असंतोष बढ़ा है।
2016 में झारखंड सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधनों ने विवाद को जन्म दिया, क्योंकि इन संशोधनों को आदिवासी विरोधी माना गया। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने भी इन संशोधनों को अनुचित ठहराया।
कानूनी स्पष्टता: 2012 में झारखंड उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सीएनटी अधिनियम के प्रावधान अनुसूचित जनजातियों और जातियों पर लागू होते हैं, और सरकार को इनका सख्ती से पालन करना चाहिए। फिर भी कार्यान्वयन में कमी बनी हुई है।
आदिवासी आंदोलन: सीएनटी अधिनियम आदिवासी आंदोलनों का केंद्र रहा है। आदिवासी समुदाय इसे अपनी पहचान और अधिकारों का प्रतीक मानते हैं। 2023 में ट्राइबल आर्मी जैसे संगठनों ने सोशल मीडिया पर इस अधिनियम की महत्ता को रेखांकित किया।
आधुनिक आवश्यकताएं: कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अधिनियम में संशोधन की आवश्यकता है ताकि यह आधुनिक आर्थिक और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप हो। उदाहरण के लिए, गैर-कृषि उपयोग के लिए लगान निर्धारण के प्रावधानों की कमी एक चुनौती है।
हालांकि सीएनटी अधिनियम आदिवासी समुदायों के लिए एक मजबूत ढाल है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में सुधार की आवश्यकता है। प्रशासन को गैरकानूनी हस्तांतरण को रोकने और धारा 71A के तहत कब्जा बहाली को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए और सख्त कदम उठाने होंगे।
साथ ही विकास परियोजनाओं और आदिवासी अधिकारों के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है। सरकार को आदिवासी समुदायों की सहमति और भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
इसके अलावा अधिनियम में संशोधन के किसी भी प्रयास में आदिवासी समुदायों और उनके नेताओं जैसे- ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल, के साथ व्यापक विचार-विमर्श आवश्यक है। संशोधनों को पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों के अनुरूप होना चाहिए, जो आदिवासी क्षेत्रों में विशेष सुरक्षा प्रदान करती है।
बहरहाल छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 झारखंड के आदिवासी समुदायों के लिए एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण कानून है। इसने न केवल उनकी भूमि को संरक्षित किया, बल्कि उनकी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को भी मजबूत किया। हालांकि आधुनिक चुनौतियों, जैसे- औद्योगीकरण और प्रशासनिक कमियों ने इसके प्रभाव को सीमित किया है। भविष्य में इस अधिनियम को और प्रभावी बनाने के लिए सरकार, प्रशासन और आदिवासी समुदायों के बीच सहयोग और संवाद आवश्यक है।