Analysis: छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में सुधार की गुंजाइश की चुनौती

रांची दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय। Analysis: आज झारखंड और अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में एक गंभीर बहस छिड़ी हुई है। शहरी और नगरीय क्षेत्रों में बड़ी आबादी ने बिना पंजीकरण या कानूनी मान्यता के जमीनों पर कब्जा कर लिया है, जो छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 (सीएनटी अधिनियम) के प्रावधानों के सीधे टकराव में है।
यह अधिनियम आदिवासी समुदायों की भूमि को गैर-आदिवासियों से बचाने के लिए बनाया गया था, आज शहरीकरण, आर्थिक विकास और सामाजिक स्थिरता के बीच एक जटिल मुद्दे के रूप में उभर रहा है।
क्या इस अधिनियम में सुधार कर इसे लचीला बनाना चाहिए। ताकि बसी आबादी को कानूनी अधिकार मिले? या क्या यह आदिवासी हितों पर हमला होगा? साथ ही सरकार को इस दिशा में कदम उठाने चाहिए या बसी आबादी को हटाने/कानूनी कार्रवाई करने से सामुदायिक और प्रशासनिक टकराव बढ़ेगा?
यह लेख इस विवादास्पद मुद्दे के विभिन्न पहलुओं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, मौजूदा स्थिति, तर्क-वितर्क, संभावित सुधार, प्रभाव और भविष्य की दिशा का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, खासकर तब जब कई जमीनें आदिवासियों द्वारा स्वेच्छा से बेची गई हों।
सीएनटी अधिनियम की उत्पत्ति 19वीं शताब्दी के अंत में हुई, जब ब्रिटिश शासन के तहत जमींदारी प्रणाली ने आदिवासी समुदायों, जैसे- मुंडा और उरांव आदि की जमीनों को गैर-आदिवासियों द्वारा हड़प लिया। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 1895-1900 के मुंडा विद्रोह ने ब्रिटिश प्रशासन को जगा दिया, जिसके परिणामस्वरूप 11 नवंबर 1908 को यह अधिनियम लागू हुआ।
इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासी भूमि को संरक्षित करना, सामुदायिक स्वामित्व (खूंटकट्टी प्रणाली) को मजबूत करना और बेठ बेगारी जैसे शोषण को रोकना था। धारा 46 और 49 ने गैर-आदिवासियों को जमीन हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाया। जबकि धारा 71A (1969 में जोड़ी गई) ने गैरकानूनी हस्तांतरण की बहाली की शक्ति दी। यह अधिनियम भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल है, जो इसे न्यायिक समीक्षा से बाहर रखता है।
हालांकि, आज की स्थिति में यह कानून शहरी विस्तार और आर्थिक जरूरतों से टकरा रहा है। रांची, जमशेदपुर और धनबाद जैसे प्रमुख शहरों तक बिना पंजीकरण के जमीनों पर बसावट ने कानूनी और सामाजिक जटिलताएँ पैदा कर दी हैं।
कई मामलों में आदिवासी स्वयं आर्थिक मजबूरी या व्यक्तिगत जरूरतों (जैसे शिक्षा, चिकित्सा, या ऋण चुकाने) के चलते अपनी जमीन बेच चुके हैं। जिससे यह सवाल उठता है कि क्या इन लेन-देन को मान्यता देना उचित होगा।
शहरी बसावट और कानूनी टकरावः झारखंड के शहरी क्षेत्रों में विशेषकर रांची के बाहरी इलाकों में, सैकड़ों परिवार पिछले दो-तीन दशकों से बिना पंजीकृत जमीनों पर रह रहे हैं। ये जमीनें या तो अनधिकृत रूप से खरीदी गईं या कब्जे में ली गईं।
2023 के एक सर्वेक्षण के अनुसार राज्य में लगभग 15-20% शहरी बसावट सीएनटी अधिनियम के दायरे में आने वाली जमीनों पर अवैध रूप से हुई है। दूसरी ओर आदिवासी संगठन जैसे झारखंड जनाधिकार महासभा का दावा है कि इन जमीनों का हस्तांतरण धोखाधड़ी, अशिक्षा या शोषण के चलते हुआ, न कि पूर्ण स्वेच्छा से।
इस बीच प्रशासन दोहरी चुनौती से जूझ रहा है। एक तरफ बसी आबादी को हटाने से सामाजिक अस्थिरता का खतरा और दूसरी ओर कानून का उल्लंघन करने वालों को संरक्षण देने से कानूनी अराजकता। 2016 में झारखंड सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधनों ने इस विवाद को और हवा दी, जब आदिवासियों ने इसे अपने अधिकारों पर हमला माना और बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए।
लचीलापन के लिए आवाजः शहरी आबादी का मानवीय पहलू– जो लोग इन जमीनों पर बसे हैं, वे पीढ़ियों से वहाँ रह रहे हैं। इनमें से कई परिवारों ने वहाँ घर बनाए, बच्चों को स्कूल भेजा और आजीविका स्थापित की। इन्हें अचानक हटाना न केवल मानवीय संकट पैदा करेगा, बल्कि सामाजिक तनाव को भी बढ़ाएगा। लचीला सुधार इन लोगों को कानूनी मान्यता देकर स्थिरता ला सकता है।
आदिवासी स्वेच्छा और आर्थिक जरूरत– कई मामलों में, जमीनें आदिवासियों द्वारा स्वेच्छा से बेची गईं। उदाहरण के लिए 2022 में रांची के निकट एक गांव में एक आदिवासी परिवार ने अपनी जमीन बेचकर अपने बेटे की मेडिकल शिक्षा का खर्च उठाया। यदि बिक्री में धोखाधड़ी न हो तो इसे रद्द करना अन्यायपूर्ण होगा। सुधार के जरिए इन लेन-देन को मान्यता दी जा सकती है, बशर्ते पारदर्शिता और उचित मूल्य सुनिश्चित हो।
आर्थिक विकास और रोजगार– शहरीकरण और औद्योगीकरण के लिए जमीन की मांग बढ़ रही है। सख्त कानून विकास को बाधित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए जमशेदपुर में टाटा स्टील के विस्तार के लिए जमीन की जरूरत है, जो सीएनटी क्षेत्रों से आती है। लचीला प्रावधान आर्थिक प्रगति और आदिवासी हितों के बीच संतुलन बना सकता है, जिससे रोजगार सृजन होगा।
आदिवासी हितों की रक्षाः ऐतिहासिक शोषण का डर– सीएनटी अधिनियम आदिवासियों की पहचान और स्वामित्व का प्रतीक है। सुधार से उनकी जमीनें फिर से गैर-आदिवासियों के हाथों में चली जाएँगी, जो ब्रिटिश काल के शोषण को दोहरा सकता है। आदिवासी संगठन इसे नव-उपनिवेशवाद कहते हैं।
स्वेच्छा पर संदेह– कई मामलों में, जमीन बिक्री धोखाधड़ी, मादक पदार्थों के लालच या आर्थिक दबाव के कारण हुई। 2023 में एक एनजीओ की रिपोर्ट ने दावा किया कि रांची के 40% मामलों में आदिवासियों को वास्तविक मूल्य से कम देकर जमीनें हड़पी गईं। इसे स्वेच्छा मानना गलत होगा। सुधार के बजाय सख्त जांच और दंड की जरूरत है।
सामुदायिक और प्रशासनिक टकराव– बसी आबादी को हटाने या कार्रवाई करने से आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच तनाव बढ़ेगा। 2016 के संशोधन विरोध में सैकड़ों आदिवासियों ने रांची में प्रदर्शन किया, जिसमें कई घायल हुए। प्रशासनिक कमजोरी और भ्रष्टाचार ने इसे और जटिल बनाया है।
ऐसे में सरकार के सामने यह चुनौती है कि वह विकास, सामाजिक न्याय और कानूनी स्थिरता के बीच संतुलन बनाए। संभावित सुधार निम्नलिखित हो सकते हैं:
विशेष पंजीकरण खिड़की– उन जमीनों के लिए 6 महीने की अवधि निर्धारित की जाए, जो बिना दस्तावेजों के बेची गईं, बशर्ते बिक्री में धोखाधड़ी न हो और उचित मूल्य का भुगतान हुआ हो।
सहमति-आधारित हस्तांतरण– आदिवासी ग्राम सभाओं की सहमति और बाजार मूल्य के 1.5 गुना मुआवजे के साथ सीमित हस्तांतरण की अनुमति।
विकास क्षेत्र की परिभाषा– शहरी विकास और औद्योगिक क्षेत्रों में सीएनटी नियमों में ढील, लेकिन ग्रामीण और जंगली क्षेत्रों में सख्ती बरकरार रखना।
स्वतंत्र मध्यस्थता समितियाँ– बसी आबादी और आदिवासी समुदायों के बीच विवाद निपटाने के लिए स्थानीय स्तर पर स्वतंत्र समितियाँ गठित करना, जिसमें आदिवासी प्रतिनिधि शामिल हों।
शिक्षा और जागरूकता– आदिवासियों को अपनी जमीन के अधिकारों के बारे में शिक्षित करना, ताकि भविष्य में धोखाधड़ी कम हो।
इन सुधारों को लागू करने से पहले व्यापक जनसुनवाई, ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल की सलाह और पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों का पालन अनिवार्य होगा।
सकारात्मक प्रभावः सामाजिक स्थिरता– शहरी आबादी को कानूनी सुरक्षा मिलने से सामाजिक तनाव कम होगा। उदाहरण के लिए रांची के हटिया क्षेत्र में बसी आबादी को मान्यता मिलने से 5000 परिवारों को राहत मिल सकती है।
आर्थिक वृद्धि– औद्योगिक और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए जमीन उपलब्धता बढ़ेगी, जिससे रोजगार सृजन होगा। 2024 में झारखंड में 10,000 नई नौकरियाँ औद्योगिक विस्तार से जुड़ी थीं।
आदिवासी कल्याण– उचित मुआवजा और वैकल्पिक आजीविका (जैसे कौशल प्रशिक्षण) से आदिवासियों की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है।
जोखिम और चुनौतियाँ: शोषण का खतरा– लचीलापन यदि नियंत्रित न हुआ, तो जमींदारों और बिल्डरों द्वारा जमीनें हड़पने की घटनाएँ बढ़ सकती हैं।
आदिवासी विरोध– सुधार के खिलाफ बड़े आंदोलन हो सकते हैं। 2023 में ट्राइबल आर्मी ने सोशल मीडिया पर #SaveTribalLand अभियान चलाया था।
प्रशासनिक अक्षमता– भ्रष्टाचार और लापरवाही से कानून का दुरुपयोग हो सकता है। 2022 में एक जांच में पाया गया कि रांची में 30% जमीन मामले में रिश्वत ली गई।
25 जुलाई 2025 तक रांची के निकटवर्ती क्षेत्रों में बसी आबादी ने स्थानीय प्रशासन से नियमितीकरण की माँग तेज कर दी है। दूसरी ओर आदिवासी संगठनों ने इसे सीएनटी अधिनियम का उल्लंघन बताया।
सोशल मीडिया पर #CNTActReform और #TribalJustice हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। एक सर्वेक्षण में 70% शहरी निवासियों ने सुधार का समर्थन किया, जबकि 60% आदिवासियों ने इसका विरोध किया। यह जनभावना इस मुद्दे की जटिलता को दर्शाती है।
सच पूछिए तो सीएनटी अधिनियम 1908 में सुधार की माँग वाजिब है, लेकिन इसे लागू करने में सावधानी और संवेदनशीलता बरतनी होगी। सरकार को शहरी जरूरतों, आर्थिक विकास और आदिवासी अधिकारों के बीच संतुलन बनाना होगा।
अब बसी आबादी को हटाना या कार्रवाई करना टकराव को बढ़ाएगा। जैसे 2016 के प्रदर्शनों में देखा गया। जबकि अंधाधुंध सुधार शोषण का कारण बन सकता है। समाधान में पारदर्शिता, सहमति, उचित मुआवजा और मजबूत निगरानी तंत्र शामिल होना चाहिए।
वहीं इस अधिनियम को आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक माना जाता है। इसलिए किसी भी बदलाव को उनकी भागीदारी और सहमति के बिना लागू नहीं करना चाहिए। भविष्य में सरकार को एक दीर्घकालिक नीति बनानी होगी, जो विकास और न्याय दोनों को सुनिश्चित करे। यह समय न केवल कानूनी सुधार का, बल्कि सामाजिक सौहार्द और समावेशी विकास का भी है।