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प्रशासन की ‘फ़ाइल-घुमाऊ’ कार्यशैली देखिए, 6 माह से जवाबदेही गायब, पीड़ित भटकने को लाचार

See the administration's bureaucratic and inefficient working style accountability has been missing for 6 months, and the victims are left helpless and wandering.

रांची दर्पण डेस्क। अगर शिकायतें सिर्फ एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर भेजने के लिए होती हैं, तो उसे प्रशासन नहीं, फाइल-प्रबंधन तंत्र कहा जाना चाहिए। रांची जिला प्रशासन का एक ताज़ा मामला यही साबित करता है, जहां एक पीड़ित की लिखित शिकायत बीते छह महीनों से न्याय नहीं, सिर्फ चक्कर काट रही है।

दस्तावेज़ बताते हैं कि पीड़ित ने गंभीर प्रशासनिक अनियमितताओं की लिखित शिकायत सीधे जिला आयुक्त मंजूनाथ भजंत्री को सौंपी। आयुक्त कार्यालय ने इसे औपचारिकता निभाते हुए जनशिकायत कोषांग भेज दिया। वहां से मामला अपर समाहर्ता (राजस्व) को अग्रसारित हुआ। अपर समाहर्ता ने नियमों के अनुसार कांके अंचलाधिकारी (सीओ) से जवाब तलब किया। यहीं से पूरा सिस्टम ठहर गया।

हैरानी की बात यह है कि जवाब तलब किए जाने के छह माह बाद भी कांके अंचलाधिकारी ने न तो कोई ठोस रिपोर्ट सौंपी, न ही देरी का कोई कारण बताया। और अगर किसी स्तर पर कोई रिपोर्ट दी भी गई तो उसे शिकायतकर्ता से छिपाकर रखा गया। यह सीधे-सीधे प्राकृतिक न्याय, प्रशासनिक पारदर्शिता और जनशिकायत नियमावली की अवहेलना है।

दस्तावेज़ों से यह भी सामने आता है कि जनशिकायत कोषांग और अपर समाहर्ता कार्यालय के कर्मियों ने शिकायतकर्ता को बार-बार यही जवाब दिया कि खुद कांके सीओ से जाकर मिलो।

सवाल यह है कि जब अपर समाहर्ता द्वारा आधिकारिक तौर पर जवाब तलब किया गया तो उसकी अनुपालना सुनिश्चित कराना किसकी जिम्मेदारी थी? क्या जनशिकायत कोषांग सिर्फ डाकखाना बनकर रह गया है?

शिकायतकर्ता ने अपर समाहर्ता (राजस्व) से कई बार व्यक्तिगत मुलाकात की। हर बार सिर्फ आश्वासन मिला। कोई लिखित आदेश नहीं। कोई समय-सीमा नहीं। कोई कार्रवाई नहीं। यह रवैया बताता है कि मामला या तो जानबूझकर ठंडे बस्ते में डाला गया या फिर प्रशासनिक नियंत्रण पूरी तरह ढीला है।

मामले की गंभीरता को देखते हुए शिकायतकर्ता ने रांची उपायुक्त को भी कई बार लिखित आवेदन दिए। इसके बावजूद ज़मीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ। न कांके सीओ से जवाब आया, न किसी स्तर पर जवाबदेही तय हुई। नतीजा वही पुरानी कहावत ढाक के तीन पात चरितार्थ।

कानूनी विशेषज्ञ मानते हैं कि जनशिकायत मामलों में समयबद्ध जांच, जवाब तलब की अनुपालना और शिकायतकर्ता को सूचना देना प्रशासनिक बाध्यता है, कोई एहसान नहीं। छह महीने तक रिपोर्ट लंबित रखना या रिपोर्ट छिपाना प्रशासनिक कदाचार और कर्तव्यहीनता की श्रेणी में आता है, जिस पर उच्च स्तर से कार्रवाई संभव है।

यह मामला सिर्फ एक शिकायत का नहीं है। यह सवाल खड़ा करता है कि क्या कांके अंचलाधिकारी किसी के प्रति जवाबदेह नहीं? क्या अपर समाहर्ता के आदेश सिर्फ काग़ज़ तक सीमित हैं? और क्या जिला प्रशासन आम नागरिक को सिर्फ कल आइए कहने के लिए बना है?

जब तक इन सवालों का जवाब नहीं मिलता, तब तक रांची का जनशिकायत तंत्र न्याय का माध्यम नहीं, गंभीर समस्याओं को दबाने का औजार ही बना रहेगा।

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