Home समस्या कुड़मी समुदाय की एसटी मांग को लेकर सड़क पर क्यों उतरे आदिवासी

कुड़मी समुदाय की एसटी मांग को लेकर सड़क पर क्यों उतरे आदिवासी

Why did the tribals take to the streets demanding the Kudmi community's ST status?

रांची दर्पण डेस्क। झारखंड की राजनीतिक और सामाजिक धरती एक बार फिर गरमाई हुई नजर आ रही है। कुड़मी समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा हासिल करने की जिद ने आदिवासी समाज को सड़कों पर उतार दिया है। आज मोरहाबादी के बापू वाटिका से शुरू हुई एक विशाल रैली ने रांची के दिल को हिला दिया।

आदिवासी बचाओ मोर्चा और विभिन्न आदिवासी संगठनों के बैनर तले निकाली गई यह रैली अलबर्ट एक्का चौक पर पहुंचते ही एक जोरदार सभा में तब्दील हो गई। हजारों की संख्या में जुटे आदिवासी समर्थकों ने नारों और बैनरों से अपनी एकजुटता का पैगाम दिया कि आदिवासी पहचान बचाओ, कुड़मी दबाव ठहराओ!। यह विरोध सिर्फ एक रैली नहीं, बल्कि झारखंड की आदिवासी अस्मिता की रक्षा का एक संकल्प है, जो कुड़मी आंदोलन के बीच तेज होता तनाव को और गहरा कर रहा है।

रैली की शुरुआत सुबह दस बजे हुई, जब मोरहाबादी मैदान पर सैकड़ों बाइक, ट्रक और पैदल जत्थों ने एक साथ कदम मिलाया। रांची के अलावा रामगढ़, गोला, रातू और आसपास के जिलों से बड़ी संख्या में आदिवासी युवा, महिलाएं और बुजुर्ग रांची पहुंचे थे। हवा में सरना झंडे लहरा रहे थे, हाथों में तीर-कमान और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की थाप गूंज रही थी।

रैली का मार्ग तय था- बापू वाटिका से होकर कांके रोड, मुख्य बाजार होते हुए अलबर्ट एक्का चौक तक। रास्ते भर कुड़मी एसटी नहीं, झूठी दावा छोड़ो! जैसे नारे गूंजते रहे। सुरक्षा बलों की सख्ती के बीच यह जुलूस शांतिपूर्ण रहा, लेकिन संदेश साफ था कि आदिवासी समाज अपनी हक की लड़ाई लड़ने को तैयार है।

सभा को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता और पूर्व मंत्री गीताश्री उरांव ने कुड़मी दावों पर सीधी चोट की। उन्होंने कहा कि कुड़मी समुदाय ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है। उनके स्वजातीय लेखकों की ही पुस्तकों में साफ लिखा है कि वे इंद्र को अपना इष्टदेव मानते हैं। कभी वे खुद को कृषक बताते हैं तो कभी क्षत्रिय। रांची के बूटी मोड़ में शिवाजी की प्रतिमा स्थापित कर वे मराठा नाता जोड़ते हैं और अब अचानक आदिवासी बनना चाहते हैं? यह कौन सा खेल है?”

उरांव ने TRI (ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए जोर दिया कि कुड़मी दावा पहले ही खारिज हो चुका है। वे TRI रिपोर्ट को भी नहीं मानते, लेकिन हम आदिवासी समाज तथ्यों पर खड़े हैं। यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर पर हमला है, जिसे हम कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे।

उनके अलावा प्रेमशाही मुंडा, देवकुमार धान, नारायण उरांव और सरस्वती बेदिया जैसे वक्ताओं ने सभा को और तल्ख बनाया। प्रेमशाही मुंडा ने चेतावनी भरी आवाज में कहा कि आदिवासी बनने के नाम पर झारखंड को टुकड़ों में बांटा जा रहा है। कुड़मी नेतागण दबाव की राजनीति से केंद्र सरकार को बाध्य करने पर तुले हैं। रेल रोको जैसे आंदोलनों से वे अपनी मांग मनवाना चाहते हैं, लेकिन यह आदिवासी अधिकारों पर कुठाराघात है।

मुंडा ने झारखंड के आदिवासी मंत्रियों और विधायकों को ललकारा कि आपको स्पष्ट करना होगा कि कुड़मी आंदोलन में आप किधर हैं? क्या आप अपनी ही धरोहर को बेचने को तैयार हैं?

देवकुमार धान ने ऐतिहासिक संदर्भ देते हुए बताया कि कुड़मी समुदाय की उत्पत्ति और संस्कृति आदिवासी परंपराओं से बिल्कुल अलग है। हमारे पूर्वज जंगलों के रक्षक थे, सरना धर्म के पालनकर्ता। कुड़मी कभी इस धारा का हिस्सा नहीं रहे।

सरस्वती बेदिया ने महिलाओं की आवाज बुलंद करते हुए कहा कि यह सिर्फ आरक्षण का सवाल नहीं, हमारी बेटियों के भविष्य का सवाल है। अगर एसटी कोटा में घुसपैठ हुई, तो आदिवासी लड़कियां शिक्षा और नौकरी से वंचित हो जाएंगी।

यह रैली वर्तमान संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, जब कुड़मी समुदाय ने 20 सितंबर से अनिश्चितकालीन ‘रेल रोको-राह रोको’ आंदोलन शुरू कर दिया। झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में रेल पटरियों पर उतरकर वे एसटी दर्जा और कुड़माली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। इस आंदोलन से कई ट्रेनें रद्द हो चुकी हैं और हजारों यात्री फंस गए हैं।

लेकिन आदिवासी संगठन इसे असंवैधानिक बता रहे हैं। हाल ही में 14 सितंबर को ही रांची में एक बाइक रैली निकाली गई थी, जिसमें हजारों आदिवासी युवाओं ने भाग लिया। विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद झारखंड की वोट बैंक राजनीति को नया मोड़ दे सकता है, खासकर आने वाले चुनावों को देखते हुए।

हालांकि कुड़मी आंदोलन की जड़ें गहरी हैं। वे खुद को ‘आदिवासी कुड़मी’ बताते हैं और दावा करते हैं कि 1950 के संविधान में 12 जनजातियों को एसटी का दर्जा मिला, लेकिन उन्हें OBC में डाल दिया गया। लेकिन आदिवासी संगठन जैसे आदिवासी विकास परिषद और ट्राइबल कोऑर्डिनेशन कमिटी इसे ‘भ्रम’ बताते हैं।

पूर्व सांसद सलखन मुर्मू ने कहा है कि यह वोट की भूख में सच्चे आदिवासियों का नरसंहार होगा।” वहीं, भाषाई और सांस्कृतिक अंतर भी साफ है। आदिवासी भाषाएं द्रविड़ियन और ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की हैं, जबकि कुड़मी इंडो-आर्यन।

बहरहाल, यह घटना झारखंड के सामाजिक ताने-बाने को उजागर करती है, जहां आरक्षण और पहचान की लड़ाई राज्य की एकता को चुनौती दे रही है। क्या केंद्र सरकार इस दबाव में झुकेगी? या आदिवासी एकता इसे रोक लेगी? समय ही बताएगा।

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