बीमार पड़े महाप्रभु जगन्नाथ, पी रहे हल्दी दूध और तुलसी का काढ़ा, भक्तों की उमड़ी भीड़
महाप्रभु की बीमारी के चलते उन्हें मुख्य सिंहासन से हटाकर मंदिर परिसर में बने एक विशेष कक्ष में रखा गया है। यहां दैनिक पूजा जारी रहती है लेकिन दर्शन प्रतिबंधित हैं। श्रद्धालुओं के लिए पट खोलने पर भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी।

धुर्वा (रांची दर्पण)। धुर्वा स्थित ऐतिहासिक जगन्नाथपुर मंदिर में श्रद्धालुओं की आस्था उस समय और गहराई ले गई, जब महास्नान के बाद प्रभु जगन्नाथ बीमार पड़ गए। परंपरा के अनुसार अब महाप्रभु को एकांतवास में रखा गया है। जहां हल्दी, दूध और तुलसी से बना औषधीय काढ़ा उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए पिलाया जा रहा है।
पौराणिक परंपरा के अनुसार स्नान पूर्णिमा के दिन महाप्रभु जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को 108 कलशों से स्नान कराया जाता है। स्नान के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं और उन्हें आम श्रद्धालुओं की तरह एकांत में उपचार दिया जाता है। इसे अनवसर काल कहा जाता है।
इस अवधि में 25 जून तक भक्तों को महाप्रभु के दर्शन नहीं होंगे। भगवान के स्थान पर अब भगवान गणेश, श्री राधा-कृष्ण और गोपियां को स्नान मंडप में विराजमान किया गया है। यही तीनों विग्रह अब श्रद्धालुओं को दर्शन देंगे।
मंदिर प्रबंधन के अनुसार महाप्रभु को जो औषधीय काढ़ा दिया जा रहा है, वह स्थानीय कारीगर रंजन घोष के निर्देशन में तैयार किया जा रहा है। इसमें हल्दी, गाय का दूध और तुलसी की पत्तियां शामिल होती हैं। इस दौरान कक्ष में प्रवेश पूर्णतः वर्जित है। यहां तक कि पुजारी भी अंदर नहीं जाते।
महाप्रभु की बीमारी के चलते उन्हें मुख्य सिंहासन से हटाकर मंदिर परिसर में बने एक विशेष कक्ष में रखा गया है। यहां दैनिक पूजा जारी रहती है लेकिन दर्शन प्रतिबंधित हैं। श्रद्धालुओं के लिए पट खोलने पर भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी।
प्रथम सेवक सुधांशु नाथ शाहदेव के अनुसार 27 जून से रथयात्रा का शुभारंभ होगा, जो 9 दिनों तक चलेगा। 26 जून को शाम 4:30 बजे से नेत्रोत्सव और भगवान का दर्शन सुलभ होगा।
वहीं 27 जून को दोपहर 2 बजे महाप्रभु गर्भगृह से रथ के लिए प्रस्थान करेंगे। शाम 4:30 बजे रथयात्रा निकाली जाएगी, जिसमें लाखों श्रद्धालु शामिल होंगे। इसके बाद भगवान को मौसीबाड़ी ले जाया जाएगा। जहां 5 जुलाई को गुंडिचा भोग लगेगा। 6 जुलाई को घुरती रथयात्रा के साथ कार्यक्रम का समापन होगा।
धर्म और संस्कृति के इस विलक्षण संगम में भगवान के बीमार पड़ने और आयुर्वेदिक उपचार की यह लीला भक्तों के लिए गहरी आध्यात्मिक अनुभूति लेकर आती है। यह परंपरा सिर्फ धार्मिक आस्था नहीं, बल्कि देवताओं और मानव जीवन के बीच के भावनात्मक संबंध को भी दर्शाती है।