
रांची दर्पण डेस्क / मुकेश भारतीय। रांची जिला उपायुक्त (DC) की ‘जनता दरबार’ पहल ने आम आदमी की समस्याओं को त्वरित समाधान देने का वादा किया है, लेकिन इसके सोशल मीडिया प्रसारण में एक संवेदनशील सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या कमजोर वर्ग के लोगों की फोटो और वीडियो बिना सहमति के सार्वजनिक करना प्रशासनिक पारदर्शिता का प्रतीक है या फिर निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन?

जरा कल्पना कीजिए कि एक दिव्यांग बुजुर्ग तीन साल से जमीन के लिए भटकते हुए जनता दरबार में राहत पा लेता है। DC साहब के सामने मुस्कुराता है, दस्तावेज थाम लेता है। अगले ही पल यह दृश्य X पर वायरल नाम, गांव, समस्या सब उजागर। दृश्य तो प्रेरणादायक लगता है, लेकिन क्या उस बुजुर्ग ने सोचा था कि उनकी निजी पीड़ा लाखों की नजरों का शिकार बनेगी? यहां नाबालिग दिव्यांग बच्चे भी प्रचार से नहीं बच पा रहे हैं।
रांची प्रशासन की यह प्रथा न केवल स्थानीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुई है, बल्कि यह पूरे देश के डिजिटल युग में गोपनीयता बनाम पारदर्शिता की बहस को हवा दे रही है। आइए इस मुद्दे को कानूनी, नैतिक और प्रशासनिक नजरिए से गहराई से समझते हैं।
सहमति के बिना ‘डिजिटल उजागर’ क्यों अपराध? भारत का कानूनी ढांचा आज डिजिटल दुनिया में निजता को संरक्षित करने के लिए सशक्त हो चुका है, लेकिन सरकारी सोशल मीडिया हैंडल्स अक्सर इसकी अनदेखी करते नजर आते हैं। सबसे पहले डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (DPDP) अधिनियम, 2023 को लें। यह कानून स्पष्ट रूप से कहता है कि किसी व्यक्ति खासकर दिव्यांगों, महिलाओं या बच्चों का फोटो, वीडियो या पहचान से जुड़ी कोई भी जानकारी सार्वजनिक करने से पहले उनकी या उनके अभिभावक की स्पष्ट, सूचित और सत्यापित सहमति अनिवार्य है।
बिना सहमति के ऐसा करना न केवल जुर्माना (25 करोड़ रुपये तक) का आधार बन सकता है, बल्कि कोर्ट या संबंधित आयोग का भी हथौड़ा चल सकता है। रांची DC के हालिया X पोस्ट में एक पीड़ित वुजुर्ग का वीडियो साझा किया गया, जहां वे भूमि नामांतरण के दस्तावेज पकड़े खुशी जाहिर कर रहे हैं। वीडियो में उनका चेहरा साफ दिख रहा है, लेकिन सहमति का कोई जिक्र नहीं। क्या यह DPDP का उल्लंघन नहीं?
फिर आता है संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और निजता का मौलिक अधिकारः 2017 के ऐतिहासिक जस्टिस केएस पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को ‘मौलिक’ घोषित किया। कोर्ट ने कहा कि कमजोर वर्ग की गरिमा का हनन जैसे उनकी लाचारी को ‘प्रदर्शन’ बनाना अनुच्छेद 21 का सीधा उल्लंघन है।
2024 में सुप्रीम कोर्ट ने दिव्यांगों के ‘सम्मानजनक चित्रण’ पर दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें स्टीरियोटाइपिंग (कलंकित दिखाना) पर सख्ती बरतने को कहा गया। रांची के सोनाहातु अंचल में हाल ही में एक पोस्ट में वृद्धा को पारिवारिक प्रमाण-पत्र मिलते हुए दिखाया गया। उनकी उम्र और स्थिति को देखते हुए क्या बिना ब्लरिंग के चेहरा दिखाना उनकी गरिमा का सम्मान करता है?
बच्चों और महिलाओं के मामले में खतरा और गहरा है। जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2015 और POCSO एक्ट, 2012 के तहत नाबालिगों की पहचान उजागर करना अपराध है। यहां तक कि सामान्य मामलों में भी। IT एक्ट, 2000 की धारा 66E गोपनीयता के अनधिकृत आक्रमण को दंडित करती है।
डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड, 2021 सरकारी हैंडल्स को भी बांधता है, जहां संवेदनशील कंटेंट के लिए जवाबदेही तय है। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया (PCI) और न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एंड डिजिटल स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (NBSA) जैसे निकाय पीड़ितों (महिलाओं, बच्चों) की पहचान छिपाने की सलाह देते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर UNICEF की गाइडलाइंस भी यही कहती हैं कि बच्चों की संवेदनशीलता को प्राथमिकता दो।
प्रशासनिक तर्क: पारदर्शिता का दोधारी तलवारः रांची DC कार्यालय का पक्ष समझना आसान है। जनता दरबार की ये पोस्टें प्रशासन की जवाबदेही दिखाती हैं कि देखिए, सरकार सुन रही है, समाधान दे रही है। 16 दिसंबर को एक व्यापक पोस्ट में मांडर प्रखंड के एक दिव्यांग पेंशन मिलने का जिक्र है। साथ ही किशोरी देवी को वृद्धा पेंशन। इससे जनता में विश्वास बढ़ता है, जागरूकता फैलती है। राज्य सरकार की ‘गांव की सरकार’ परिकल्पना को मजबूत करता है।
लेकिन सवाल यह है कि क्या पारदर्शिता गोपनीयता की बलि चढ़ा सकती है? हेहल अंचल के एक दंपति का वीडियो भी है, जहां वे तीन साल की लड़ाई के बाद धन्यवाद देते नजर आते हैं। वे भावुक तो है, लेकिन उनकी निजी संघर्ष को सार्वजनिक ‘ट्रॉफी’ बनाना नैतिक रूप से सही?
नैतिक दुविधा- गरिमा वनाम प्रशासनिक प्रचारः नैतिक रूप से यह प्रथा कमजोरों को ‘प्रचार सामग्री’ बना देती है। सामाजिक स्टिग्मा, उपहास या यहां तक कि सुरक्षा जोखिम (जैसे उत्पीड़न) बढ़ सकता है। एक निराश्रित महिला का चेहरा दिखाकर ‘मुस्कान लौटी’ कहना सुंदर लगता है, लेकिन क्या वह महिला सहमत हैं? इससे भविष्य में लोग मदद मांगने से हिचक सकते हैं। हमेशा डर रहेगा कि उनकी पीड़ा वायरल हो जाएगी।
रांची DC मंजूनाथ भजंत्री की तारीफ तो होती है त्वरित समाधान के लिए। लेकिन X हैंडल पर ऐसी पोस्टें बिना विवाद के चल रही हैं। फिर भी विशेषज्ञ चेताते हैं कि यह प्रथा व्यापक रूप से अनुचित है।
यह प्रथा उचित तभी है जब लिखित या स्पष्ट सहमति लें। चेहरे ब्लर करें या नाम छिपाएं। योजना की जानकारी दें, न कि व्यक्तिगत मजबूरी दिखाएं। पारदर्शिता जरूरी है, लेकिन गरिमा पहले। अन्यथा DPDP और अनुच्छेद 21 के तहत शिकायतें बढ़ सकती हैं। पाठकों, आपकी राय क्या है? टिप्पणियों में जरुर बताएं।















