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सफेदपोश नक्सली के संरक्षण में स्कूल छोड़ जहर की खेती में जुटे बच्चे

रांची दर्पण डेस्क। झारखंड के सुदूरवर्ती इलाकों में सफेदपोश नक्सली के संरक्षण में अफीम की खेती का अवैध धंधा तेजी से फैल रहा है। रांची, खूंटी, चतरा, हजारीबाग जैसे जिलों में यह समस्या गंभीर रूप धारण कर चुकी है, जहां स्कूली बच्चे भी इस खतरनाक खेती का हिस्सा बन रहे हैं।

गांवों के भोले-भाले आदिवासियों को शहरी माफियाओं द्वारा इस जहर की खेती में धकेला जा रहा है। लेकिन चिंताजनक बात यह है कि 12 से 15 वर्ष के नाबालिग बच्चे अपने माता-पिता के साथ अफीम के खेतों में काम करने के लिए स्कूल छोड़ रहे हैं।

खूंटी जिले के अड़की ब्लॉक के कुरूंगा गांव के समाजसेवी मंगल सिंह मुंडा ने इस समस्या को सोशल मीडिया पर उजागर करते हुए बताया है कि कई बच्चे अब स्कूल की जगह खेतों में काम कर रहे हैं।

उन्होंने इन बच्चों को शिक्षा पर ध्यान देने और इस अवैध गतिविधि से दूर रहने की सलाह दी है। सोशल मीडिया पर साझा किए गए उनके संदेश ने यह स्पष्ट किया कि बच्चों की स्कूलों में उपस्थिति लगातार घट रही है, जो पूरे समाज के लिए एक गंभीर चिंता का विषय है।

सफेदपोश माफियाओं का खेलः खूंटी, मुरहू और अड़की जैसे क्षेत्रों में अफीम की खेती अब एक संगठित अपराध का रूप ले चुकी है। यहां के ग्रामीण, खासकर बच्चे और महिलाएं- बिना यह समझे कि वे किस जोखिम का सामना कर रहे हैं। उत्साहपूर्वक इस जहरीली खेती में शामिल हो रहे हैं।

अफीम माफिया इन गांवों के लोगों को खेती के लिए सभी आवश्यक संसाधन उपलब्ध करा रहे हैं। खेती के उपकरणों की बिक्री में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है और सिंचाई के लिए नदी-नालों का पानी अफीम की खेती के लिए रोका जा रहा है।

बच्चों की शिक्षा पर पड़ रहा है बुरा असरः गांवों में स्कूलों की स्थिति बिगड़ रही है। अफीम की खेती में बच्चों की भागीदारी बढ़ने से उनकी शिक्षा बाधित हो रही है। स्कूलों में उपस्थिति दर तेजी से घट रही है। इससे पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। कई सफेदपोश माफिया, जो गांवों में अपनी पकड़ मजबूत कर चुके हैं, इन बच्चों को अफीम की खेती में धकेल रहे हैं और शिक्षा से दूर कर रहे हैं।

प्रशासन और पुलिस के सामने चुनौतीः अफीम की खेती के इस बढ़ते नेटवर्क को तोड़ने के लिए प्रशासन और एनसीबी (नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो) के सामने गंभीर चुनौती है। कई बड़े माफिया और सफेदपोश लोग इस अवैध धंधे को संरक्षण दे रहे हैं।

खूंटी और रांची के जेलों में 100 से अधिक बंदी अफीम की खेती के मामलों में वर्षों से कैद हैं, लेकिन इसके बावजूद लोग कम समय में अधिक पैसा कमाने के लालच में इस जोखिमभरी खेती में लगे हुए हैं।

सामुदायिक सहयोग की जरूरतः समाजसेवी मंगल सिंह मुंडा ने इस दिशा में सामुदायिक जागरूकता की आवश्यकता पर बल दिया है। उन्होंने पुलिस और आदिवासी नेताओं से अपील की है कि वे ईमानदारी से काम करें और इस अवैध खेती को रोकने के लिए ठोस कदम उठाएं।

उन्होंने विशेष रूप से पारा मिलिट्री फोर्स की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया। जो ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय हैं और अफीम की खेती को नियंत्रित करने में मददगार साबित हो सकते हैं।

वेशक अफीम की खेती न सिर्फ गांवों के बच्चों और युवाओं को बर्बाद कर रही है, बल्कि पूरे आदिवासी समाज के अस्तित्व को खतरे में डाल रही है। समाज के सभी वर्गों को मिलकर इस जहर की खेती से लड़ने के लिए एकजुट होना होगा। ताकि आने वाली पीढ़ी सुरक्षित और शिक्षित भविष्य की ओर अग्रसर हो सके।

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