आज कल मैं एक मीडिया हाउस में काम करने जाता हूं। मैं अभी वहां जैसे-तैसै काम कर रहा हूं। यह उस अखबार के संपादक जी की कृपा है। नहीं तो यहां संपादकीय विभाग में खुद को महाघाघ समझने वाले ऐसे-ऐसे मठाधीश हैं,जो मुझे कब के बाहर का रास्ता दिखा देते। यह भी सच है कि इसके पहले मैं रांची के किसी भी अखबार के दफ्तर में काम मांगने मैं नहीं गया हूं। क्योंकि यदि आपका लिंक मजबूत न हो तो यहां का कोई भी अखबार पास फटकने नहीं देगा।यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। इस अखबार के संपादक से मैं काफी प्रभावित हूं। ये पत्रकारिता के जौहरी हैं। ये चाहें तो कांच के टुकड़े को भी तराश कर हीरा की तरह चमका सकते हैं।
मैं अभी जिस अखबार में हूं,वहां की स्थिति देखकर मैं काफी हैरान और परेशान हूं। लोग अपने दायित्व का निर्वाह कम और दूसरे के काम में टांग अड़ाने में अपना अधिक समय नष्ट करते हैं।
आज सुबह जैसे ही मैंने अखबार पढ़ना शुरु किया तो मैं दंग रह गया। मुझे जिस दो पेजों के संपादन और निर्माण की जबावदेही सौंपी गई है,उसे पढ़ते ही मैं दंग रह गया और मुझे लगा कि यह किसी भी समाचार पत्र का पन्ना हो ही नहीं सकता है। उसमें मेरे द्वारा संपादित समाचार न के बराबर थे। “देश-विदेश” का पन्ना तो ऐसे लग रहा था,मानो रांची नगर निगम का कचरा पेटी है,जिसमें लोग अपने हिसाब के कचरे डाल देते हैं। यही हाल “विविध” पेज का था। पेजीनेटर ने मेरे निर्देशों का पालन नहीं किया और अपनी मनमानी का ठिकरा समूचे पेज पर फोड़ दिया था।
खैर,आज मैं बारिश में भिंगते हुए अखबार के दफ्तर पहुंचा और थोड़ी रिलैक्स के बाद पेजीनेटर(देश-विदेश) से जानना चाहा कि आखिर ये सब क्या है। क्या आपको लगता है कि यह एक अखबार का पन्ना है। मुझे तो हर तरह से इस पन्ने पर समाचार की जगह कचरा नजर आ रहा है। इसके बाद पेजीनेटर ने जो जबाव दिए,वे मुझे काफी हैरान कर दिया। मैंने छोटे-बड़े कई मीडिया हाउस में काम किया है,लेकिन ऐसी स्थिति का सामना मेरे लिए एक नया अनुभव है। उसका कहना था कि यहां सब ऐसा ही चलता है। समाचार संपादक के कहने पर यह सब हुआ है और यहां किसी के भी कहने पर ऐसा होता रहता है।
मैं यह बात शुरु से ही समझ रहा हूं। समाचार संपादक और उनका गुट नहीं चाहते हैं कि मैं यहां टिक सकुं। वे सब नित्य नए हथकंडे अपना रहे हैं,जिससे ही निपटने में मेरा वक्त भी जाया हो रहा है। खासकर समाचार संपादक के बारे में कहा जाता है कि वे सज्जन व्यक्ति हैं और यदि वे सज्जन व्यकि हैं तो मेरी निजी राय में अब सजन्नता की परिभाषा बदल गयी है। मैंने संपादक जी से तीन बार इन सबों का जिक्र किया है और उन्होंनें हर संभव सकारात्मक निर्देश दिए हैं। फिर भी कहते हैं न कि कुत्ते की दूम को बारह वर्ष भी सीधी नली मे डाल दो,उसके बाद भी वो टेढ़ा का टेढ़ा ही रहेगा।
मुझे घोर आश्चर्च इस बात को लेकर है कि मुझे अब तक अखबार प्रबंधन या संपादकीय विभाग की ओर से कार्य करने का कोई लिखित /औपबंधिक पत्र नहीं दिया गया है। यहां कार्य तो बता दिया गया है,लेकिन उसके लिए जरुरी संशाधन अब तक मुहैया नही कराये गये हैं। एक तरह से संपादकीय प्रभारी मुझे स्टेपनी की तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं। बैठने की जगह तक यहां सही से उपलब्ध नहीं कराया गया है। कभी वहां तो कभी यहां बैठा दिया जाता है।और जहां मुझे बैठाया जाता है,वहां कोई न कोई थोड़ी देर बाद मेरी जगह बोल कर उठा देता है. सच कहता हूं कि मैंने कई मीडिया हाउस देखें हैं,लेकिन ऐसी व्यवस्था मैंने कहीं नहीं देखी है।
….मुकेश भारतीय